Best mirza ghalib shayari in hindi, best ghalib shayari in hindi
About mirza ghalib;
मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म काला महल, आगरा में मुगलों के एक परिवार में हुआ था जो सेलजुक राजाओं के पतन के बाद समरकंद (आधुनिक-उज्बेकिस्तान में) चले गए थे। उनके पितामह, मिर्ज़ा क़ौकान बेग, एक सेल्जूक़ तुर्क थे, जिन्होंने अहमद शाह (1748-54) के शासनकाल में समरकंद से भारत में प्रवास किया था। उन्होंने लाहौर, दिल्ली और जयपुर में काम किया, पहासू (बुलंदशहर, यूपी) के उप-जिले से सम्मानित किया गया और अंत में आगरा, यूपी, भारत में बस गए। उनके चार बेटे और तीन बेटियां थीं। मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग और मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग उनके दो बेटे थे।
मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग (ग़ालिब के पिता) ने इज्ज़त-उत-निसा बेगम से शादी की, जो एक जातीय कश्मीरी थी, और फिर अपने ससुर के घर पर रहती थी। वह पहले लखनऊ के नवाब और फिर हैदराबाद के निज़ाम, डेक्कन से कार्यरत थे। 1803 में अलवर में एक लड़ाई में उनकी मृत्यु हो गई और उन्हें राजगढ़ (अलवर, राजस्थान) में दफनाया गया। इसके बाद, ग़ालिब की उम्र 5 साल से थोड़ी कम थी। उसके बाद उनके चाचा मिर्ज़ा नसरुल्लाह बेग खान ने उनका पालन-पोषण किया, लेकिन 1806 में, नसरुल्लाह एक हाथी से गिर गए और संबंधित चोटों से उनकी मृत्यु हो गई
मेह वो क्यों बहुत पीते बज़्म-ऐ-ग़ैर में या रब
आज ही हुआ मंज़ूर उन को इम्तिहान अपना
मँज़र इक बुलंदी पर और हम बना सकते “ग़ालिब”
अर्श से इधर होता काश के मकान अपना
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तश्ना-ए-फ़रियाद आया
न था कुछ तो, खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता
डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता
हुआ जब ग़म से यूं बेहिस, तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से, तो जानूं पर धरा होता
हुई मुद्दत, कि 'ग़ालिब' मर गया, पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना, कि यूं होता तो क्या होता
दम लिया था न क़यामत ने हनोज़
फिर तेरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
सादगी हाये तमन्ना यानी
फिर वो नैइरंग-ए-नज़र याद आया
उज़्र-ए-वामाँदगी अए हस्रत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया
ज़िन्दगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यों तेरा राहगुज़र याद आया
क्या ही रिज़वान से लड़ाई होगी
घर तेरा ख़ुल्द में गर याद आया
आह वो जुर्रत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आके जिगर याद आया
फिर तेरे कूचे को जाता है ख़्याल
दिल-ए-ग़ुमगश्ता मगर याद् आया
कोई वीरानी-सी-वीराँई है
दश्त को देख के घर याद आया
मैंने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था के सर याद आया
फिर कुछ इस दिल् को बेक़रारी है
सीना ज़ोया-ए-ज़ख़्म-ए-कारी है
फिर जिगर खोदने लगा नाख़ून
आमद-ए-फ़स्ल-ए-लालाकारी है
क़िब्ला-ए-मक़्सद-ए-निगाह-ए-नियाज़
फिर वही पर्दा-ए-अम्मारी है
चश्म-ए-दल्लल-ए-जिन्स-ए-रुसवाई
दिल ख़रीदार-ए-ज़ौक़-ए-ख़्बारी है
वही सदरंग नाला फ़र्साई
वही सदगूना अश्क़बारी है
दिल हवा-ए-ख़िराम-ए-नाज़ से फिर
महश्रिस्ताँ-ए-बेक़रारी है
जल्वा फिर अर्ज़-ए-नाज़ करता है
रोज़-ए-बाज़ार-ए-जाँसुपारी है
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है
आईना क्यूँ न दूँ के तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ के तुझसा कहें जिसे
हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़्याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवेदा कहें जिसे
फूँका है किसने गोशे मुहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार तमन्ना कहें जिसे
सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डलिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक के सहरा कहें जिसे
है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ
शौक़-ए-इनाँ गुसेख़ता दरिया कहें जिसे
दरकार है शिगुफ़्तन-ए-गुल हाये ऐश को
सुबह-ए-बहार पंबा-ए-मीना कहें जिसे
'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे
दिया है दिल अगर उस को, बशर है क्या कहिये
हुआ रक़ीब तो हो, नामाबर है, क्या कहिये
ये ज़िद्, कि आज न आवे और आये बिन न रहे
क़ज़ा से शिकवा हमें किस क़दर है, क्या कहिये
रहे है यूँ गह-ओ-बेगह के कू-ए-दोस्त को अब
अगर न कहिये कि दुश्मन का घर है, क्या कहिये
ज़िह-ए-करिश्म के यूँ दे रखा है हमको फ़रेब
कि बिन कहे ही उंहें सब ख़बर है, क्या कहिये
समझ के करते हैं बाज़ार में वो पुर्सिश-ए-हाल
कि ये कहे कि सर-ए-रहगुज़र है, क्या कहिये
तुम्हें नहीं है सर-ए-रिश्ता-ए-वफ़ा का ख़्याल
हमारे हाथ में कुछ है, मगर है क्या कहिये
उंहें सवाल पे ज़ओम-ए-जुनूँ है, क्यूँ लड़िये
हमें जवाब से क़तअ-ए-नज़र है, क्या कहिये
हसद सज़ा-ए-कमाल-ए-सुख़न है, क्या कीजे
सितम, बहा-ए-मतअ-ए-हुनर है, क्या कहिये
कहा है किसने कि 'ग़ालिब' बुरा नहीं लेकिन
सिवाय इसके कि आशुफ़्तासर है क्या कहिये
वो फ़िराक और वो विसाल कहाँ
को शब ओ रोज़ ओ माह ओ साल कहाँ
फुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक किसे
ज़ौक-ए-नज़ारा-ए-ज़माल कहाँ
दिल तो दिल वो दिमाग भी ना रहा
शोर-ए-सौदा-ए-खत्त-ओ-खाल कहाँ
थी वो इक शख्स की तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ
ऐसा आसां नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ
हमसे छूटा किमारखाना-ए-इश्क
वाँ जो जावे गिरह में माल कहाँ
फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये बवाल कहाँ
मुज़महिल हो गए कवा ग़ालिब
वो अनासिर में एतिदाल कहाँ
बोसे में वो मुज़ाइक़ा न करे
पर मुझे ताक़ते सवाल कहा
दर्द हो दिल में तो दवा कीजे
दिल ही जब दर्द हो तो क्या कीजे
हमको फ़रियाद करनी आती है
आप सुनते नहीं तो क्या कीजे
इन बुतों को ख़ुदा से क्या मतलब
तौबा तौबा ख़ुदा ख़ुदा कीजे
रंज उठाने से भी ख़ुशी होगी
पहले दिल दर्द आशना कीजे
अर्ज़-ए-शोख़ी निशात-ए-आलम है
हुस्न को और ख़ुदनुमा कीजे
दुश्मनी हो चुकी बक़द्र-ए-वफ़ा
अब हक़-ए-दोस्ती अदा कीजे
मौत आती नहीं कहीं, ग़ालिब
कब तक अफ़सोस जीस्त का कीजे
दुःख दे कर सवाल करते हो
तुम भी ग़ालिब कमाल करते हो
देख कर पूछ लिया हाल मेरा
चलो कुछ तो ख्याल करते हो
शहर-ऐ-दिल में उदासियाँ कैसी
यह भी मुझसे सवाल करते हो
मरना चाहे तो मर नहीं सकते
तुम भी जिना मुहाल करते हो
अब किस किस की मिसाल दू मैं तुम को
हर सितम बे-मिसाल करते है
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो में पिए होते
क़हर हो या भला हो , जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिए होते
मेरी किस्मत में ग़म गर इतना था
दिल भी या रब कई दिए होते
आ ही जाता वो राह पर ‘ग़ालिब ’
कोई दिन और भी जिए होते
कोई , दिन , गैर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हमने ठानी और है
आतशे – दोज़ख में , यह गर्मी कहाँ ,
सोज़े -गुम्हा -ऐ -निहनी और है
बारहन उनकी देखी हैं रंजिशें ,
पर कुछ अबके सिरगिरांनी और है
वफ़ा के ज़िक्र में ग़ालिब मुझे गुमाँ हुआ
वो दर्द इश्क़ वफाओं को खो चूका होगा ,
जो मेरे साथ मोहब्बत में हद -ऐ -जूनून तक था
वो खुद को वक़्त के पानी से धो चूका होगा ,
मेरी आवाज़ को जो साज़ कहा करता था
मेरी आहोँ को याद कर के सो चूका होगा ,
वो मेरा प्यार , तलब और मेरा चैन -ओ -क़रार
जफ़ा की हद में ज़माने का हो चूका होगा ,
तुम उसकी राह न देखो वो ग़ैर था साक़ी
भुला दो उसको वो ग़ैरों का हो चूका होगा !
दे के खत , मुहँ देखता है नामाबर ,
कुछ तो पैगामे जुबानी और है
हो चुकी ‘ग़ालिब’, बलायें सब तमाम ,
एक मरगे -नागहानी और है
हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है
न शोले में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोखे-तुंद-ख़ू क्या है
ये रश्क है कि वो होता है हमसुख़न तुमसे
वर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़िए-अ़दू क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है
जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है
रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका, तो फिर लहू क्या है
वो चीज़ जिसके लिये हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाए वादा-ए-गुल्फ़ाम-ए-मुश्कबू क्या है
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ दो-चार
ये शीशा-ओ-क़दह-ओ-कूज़ा-ओ-सुबू क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है
हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वरना शहर में 'ग़ालिब; की आबरू क्या है
आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
ताक़ते-बेदादे-इन्तज़ार नहीं है
देते हैं जन्नत हयात-ए-दहर के बदले
नश्शा बअन्दाज़-ए-ख़ुमार नहीं है
गिरिया निकाले है तेरी बज़्म से मुझ को
हाये! कि रोने पे इख़्तियार नहीं है
हम से अबस है गुमान-ए-रन्जिश-ए-ख़ातिर
ख़ाक में उश्शाक़ की ग़ुब्बार नहीं है
दिल से उठा लुत्फे-जल्वाहा-ए-म'आनी
ग़ैर-ए-गुल आईना-ए-बहार नहीं है
क़त्ल का मेरे किया है अहद तो बारे
वाये! अगर अहद उस्तवार नहीं है
तूने क़सम मैकशी की खाई है 'ग़ालिब'
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है
इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही
मेरी वहशत तेरी शोहरत ही सही
क़त्अ कीजे, न तअल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है, तो अदावत ही सही
मेरे होने में है क्या रुसवाई
ऐ वो मजलिस नहीं, ख़ल्वत ही सही
हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझसे मुहब्बत ही सही
हम कोई तर्के-वफ़ा करते हैं
ना सही इश्क़, मुसीबत ही सही
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बेनियाज़ी तेरी आदत ही सही
यार से छेड़ चली जाए 'असद'
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही
मिलती है ख़ू-ए-यार से नार इल्तेहाब में
काफ़िर हूँ गर न मिलती हो राहत अज़ाब में
कब से हूँ क्या बताऊँ जहान-ए-ख़राब में
शब हाए हिज्र को भी रखूँगा हिसाब में
ता फिर न इंतिज़ार में नींद आए उम्र भर
आने का अहद कर गए आए जो ख़्वाब में
क़ासिद के आते आते ख़त एक और लिख रखूँ
मैं जानता हूँ वो जो लिखेंगे जवाब में
मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में
लाखों लगाव एक चुराना निगाह का
लाखों बनाव एक बिगड़ना इताब में
ग़ालिब छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी के हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गरदन पर
वो ख़ूँ जो चश्म ए तर से उम्र भर यूँ दमबदम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए हैं लेकिन
बहुत बेआबरू होकर तेरे कूंचे से हम निकले
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की दराज़ी का
अगर उस तुररा ए पुरपेचोख़म का पेचोख़म निकले
मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हम से लिखवाए
हुई सुबह और घर से कान पर रखकर क़लम निकले
हुई इस दौर में मनसूब मुझसे बादा आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में जामेजम निकले
हुई जिनसे तवक़्क़ो ख़स्तगी की दाद पाने की
वो हमसे भी ज़्यादा ख़स्ता ए तेग ए सितम निकले
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख के जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा ग़ालिब और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं
याद थी हमको भी रन्गा रन्ग बज़्माराईयाँ
लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निसियाँ हो गईं
थीं बनातुन्नाश-ए-गर्दूँ दिन को पर्दे में निहाँ
शब को उनके जी में क्या आई कि उरियाँ हो गईं
क़ैद में याक़ूब ने ली गो न यूसुफ़ की ख़बर
लेकिन आँखें रौज़न-ए-दीवार-ए-ज़िंदाँ हो गईं
सब रक़ीबों से हों नाख़ुश, पर ज़नान-ए-मिस्र से
है ज़ुलैख़ा ख़ुश के मह्व-ए-माह-ए-कनाँ हो गईं
जू-ए-ख़ूँ आँखों से बहने दो कि है शाम-ए-फ़िराक़
मैं ये समझूँगा के शमएं हो फ़रोज़ाँ हो गईं
इन परीज़ादों से लेंगे ख़ुल्द में हम इन्तक़ाम
क़ुदरत-ए-हक़ से यही हूरें अगर वाँ हो गईं
हाँ दिल-ए-दर्दमंद ज़म-ज़मा साज़
क्यूँ न खोले दर-ए-ख़ज़िना-ए-राज़
ख़ामे का सफ़्हे पर रवाँ होना
शाख़-ए-गुल का है गुल-फ़िशाँ होना
मुझ से क्या पूछता है क्या लिखिये
नुक़्ता हाये ख़िरदफ़िशाँ लिखिये
बारे, आमों का कुछ बयाँ हो जाये
ख़ामा नख़्ले रतबफ़िशाँ हो जाये
आम का कौन मर्द-ए-मैदाँ है
समर-ओ-शाख़, गुवे-ओ-चौगाँ है
ताक के जी में क्यूँ रहे अर्माँ
आये, ये गुवे और ये मैदाँ!
आम के आगे पेश जावे ख़ाक
फोड़ता है जले फफोले ताक
न चला जब किसी तरह मक़दूर
बादा-ए-नाब बन गया अंगूर
ये भी नाचार जी का खोना है
शर्म से पानी पानी होना है
मुझसे पूछो, तुम्हें ख़बर क्या है
आम के आगे नेशकर क्या है
न गुल उस में न शाख़-ओ-बर्ग न बार
जब ख़िज़ाँ आये तब हो उस की बहार
और दौड़ाइए क़यास कहाँ
जान-ए-शीरीँ में ये मिठास कहाँ
जान में होती गर ये शीरीनी
'कोहकन' बावजूद-ए-ग़मगीनी
नींद उसकी है, दिमाग़ उसका है, रातें उसकी हैं
तेरी ज़ुल्फ़ें जिसके बाज़ू पर परिशाँ हो गईं
मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया
बुल-बुलें सुन कर मेरे नाले, ग़ज़लख़्वाँ हो गईं
वो निगाहें क्यूँ हुई जाती हैं यारब दिल के पार
जो मेरी कोताही-ए-क़िस्मत से मिज़्श्गाँ हो गईं
बस कि रोका मैं ने और सीने में उभरें पै ब पै
मेरी आहें बख़िया-ए-चाक-ए-गरीबाँ हो गईं
वाँ गया भी मैं तो उनकी गालियों का क्या जवाब
याद थी जितनी दुआयें, सर्फ़-ए-दर्बाँ हो गईं
जाँफ़िज़ा है बादा, जिसके हाथ में जाम आ गया
सब लकीरें हाथ की गोया रग-ए-जाँ हो गईं
हम मुवहिहद हैं, हमारा केश है तर्क-ए-रूसूम
मिल्लतें जब मिट गैइं, अज्ज़ा-ए-ईमाँ हो गईं
रंज से ख़ूगर हुआ इन्साँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ि इतनी के आसाँ हो गईं
यूँ ही गर रोता रहा 'ग़ालिब', तो अए अह्ल-ए-जहाँ
देखना इन बस्तियों को तुम कि वीराँ हो गईं
नवेदे-अम्न है बेदादे दोस्त जाँ के लिए
रही न तर्ज़े-सितम कोई आसमाँ के लिए
बला से गर मिज़्गाँ-ए-यार तश्ना-ए-ख़ूँ है
रखूँ कुछ अपनी भी मि़ज़्गाँने-ख़ूँफ़िशाँ के लिए
वो ज़िन्दा हम हैं कि हैं रूशनासे-ख़ल्क़ - ए -ख़िज्र
न तुम कि चोर बने उम्रे-जाविदाँ के लिए
रहा बला में भी मैं मुब्तिला-ए-आफ़ते-रश्क
बला-ए-जाँ है अदा तेरी इक जहाँ, के लिए
फ़लक न दूर रख उससे मुझे, कि मैं ही नहीं
दराज़-ए-दस्ती-ए-क़ातिल के इम्तिहाँ के लिए
मिसाल यह मेरी कोशिश की है कि मुर्ग़े-असीर
सरे क़फ़स में फ़राहम ख़स आशियाँ के लिए
गदा समझ के वो चुप था मेरी जो शामत आए
उठा और उठ के क़दम, मैंने पासबाँ के लिए
बक़द्रे-शौक़ नहीं ज़र्फ़े-तंगना-ए-ग़ज़ल
कुछ और चाहिए वुसअत मेरे बयाँ के लिए
दिया है ख़ल्क को भी ता उसे नज़र न लगे
बना है ऐश तजम्मल हुसैन ख़ाँ के लिए
ज़बाँ पे बारे-ख़ुदाया ये किसका नाम आया
कि मेरे नुत्क़ ने बोसे मेरी ज़ुबाँ के लिए
नसीरे-दौलत-ओ-दीं और मुईने-मिल्लत-ओ-मुल्क़
बना है चर्ख़े-बरीं जिसके आस्ताँ के लिए
ज़माना अह्द में उसके है मह्वे आराइश
बनेंगे और सितारे अब आसमाँ के लिए
वरक़ तमाम हुआ और मदह बाक़ी है
सफ़ीना चाहिए इस बह्रे- बेक़राँ के लिए
अदा-ए-ख़ास से ‘ग़ालिब’ हुआ है नुक़्ता-सरा
सला-ए-आम है याराने-नुक़्ता-दाँ के लिए
वह फ़िराक़ और वह विसाल कहां
वह शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहां
फ़ुर्सत-ए कारोबार-ए शौक़ किसे
ज़ौक़-ए नज़्ज़ारह-ए जमाल कहां
दिल तो दिल वह दिमाग़ भी न रहा
शोर-ए सौदा-ए ख़त्त-ओ-ख़ाल कहां
थी वह इक शख़्स के तसव्वुर से
अब वह र`नाई-ए ख़याल कहां
ऐसा आसां नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहां
हम से छूटा क़िमार-ख़ानह-ए `इश्क़
वां जो जावें गिरिह में माल कहां
फ़िक्र-ए दुन्या में सर खपाता हूं
मैं कहां और यह वबाल कहां
मुज़्महिल हो गए क़ुवा ग़ालिब
वह `अनासिर में इ`तिदाल कहां
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तॆरी ज़ुल्फ कॆ सर होने तक
दाम हर मौज में है हल्का-ए-सदकामे-नहंग
देखे क्या गुजरती है कतरे पे गुहर होने तक
आशिकी सब्र तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूं खून-ए-जिगर होने तक
हमने माना कि तगाफुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुमको ख़बर होने तक
परतवे-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
में भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक
यक-नज़र बेश नहीं, फुर्सते-हस्ती गाफिल
गर्मी-ए-बज्म है इक रक्स-ए-शरर होने तक
गम-ए-हस्ती का 'असद' कैसे हो जुज-मर्ग-इलाज
शमा हर रंग में जलती है सहर होने तक
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